जगन्नाथ महाप्रभु की आगामी रथ यात्रा शुक्रवार, दिनांक 27 जून से विधिपूर्वक आरंभ होगी और नव दिन चलने के पश्चात 5 जुलाई को भगवान जगन्नाथ पुनः श्रीमंदिर में विराजमान होंगे। यद्यपि भगवान जगन्नाथ ने अनेकों लीलाएँ की हैं, परंतु उनमें से एक अत्यंत प्रिय लीला है — बंधु महंत जी का चरित्र, जिनके लिए स्वयं भगवान जगन्नाथ अपने निज मंदिर से बाहर आए थे।
भक्तों, आज के इस ब्लॉग में हम जगत के नाथ भगवान जगन्नाथ की एक प्रसिद्ध और चमत्कारी लीला का वर्णन करेंगे।
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जगन्नाथ महाप्रभु बंधु महंत जी को महाप्रसाद देते हुए |
बंधु महंत जी का चरित्र
बंधु महंत जी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी से दूर किसी अन्य प्रांत में रहते थे, किंतु भगवान जगन्नाथ के प्रति उनकी अत्यंत प्रीति थी। वे अत्यंत गरीब थे और आसपास से प्राप्त दान पर ही अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। किंतु उनका एक नियम था — भोजन करने के पश्चात संपूर्ण परिवार के साथ भगवान जगन्नाथ का कीर्तन अवश्य करते थे।
एक बार उन्हें पाँच दिनों तक कोई दान नहीं मिला। उनकी पत्नी और बच्चे भूख से व्याकुल हो उठे। बंधु जी भगवान की लीला मानकर शांत थे, किंतु जब परिवार की पीड़ा असहनीय हो गई, तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, “मेरा एक मित्र है, उसके पास चलें। वह न केवल भोजन देगा बल्कि कोई कार्य भी दे सकता है, जिससे हमें आगे दान माँगने की आवश्यकता न पड़े।”
पत्नी प्रसन्न हुई और चलने को तैयार हो गई। तब बंधु जी ने कहा, “वे बहुत दूर, पुरी में रहते हैं। वहाँ पहुँचने में लगभग 25 दिन लगेंगे।” पत्नी ने कहा, “कोई बात नहीं, यदि भोजन मिलेगा तो हम चलेंगे।”
मन ही मन बंधु महंत जी भगवान जगन्नाथ का स्मरण करते हुए चल दिए:
"हे जगन्नाथ जी! मेरी लाज रखना। मैंने अपनी पत्नी से झूठ कहा है कि आप मेरे मित्र हैं। किंतु आप ही मेरे सच्चे मित्र हैं।"
25 दिन भूखे-प्यासे पत्ते और पानी से बच्चों का पेट भरते हुए, वे जगन्नाथपुरी पहुँचे। जैसे ही मंदिर की ध्वजा देखी, उनका हृदय विरह से भर गया। दर्शन हेतु जब वे मंदिर पहुँचे, पत्नी ने पूछा, “आपके मित्र कहाँ हैं? भोजन कब आएगा?” उन्होंने उत्तर दिया, “वे बहुत व्यस्त हैं, प्रतीक्षा करो, वह भोजन अवश्य भेजेंगे।”
शाम हो गई, किंतु भोजन नहीं आया। पत्नी फिर पूछने लगी, तब बंधु महंत जी ने कहा, “इतनी भीड़ थी, सबको मिलकर आ रहे होंगे।” अंदर से वह निरंतर प्रार्थना कर रहे थे — "हे प्रभु, लाज रख लो!"
जगन्नाथ महाप्रभु
कुछ समय पश्चात भगवान जगन्नाथ स्वयं एक ब्राह्मण का वेश धारण कर स्वर्णजड़ित थाली में अनेक प्रकार के व्यंजन लेकर निकले — कटहल की सब्जी, खिचड़ी, दाल आदि। वह पुकारने लगे:
"यहाँ कोई बंधु महंत जी हैं?"
बंधु महंत जी चकित होकर बोले, “हाँ, मैं ही हूँ।”
ब्राह्मण ने कहा, “भगवान जगन्नाथ मेरे स्वप्न में आए और बोले — मेरा मित्र बंधु महंत बाहर प्रतीक्षा कर रहा है, उसे यह महाप्रसाद पहुँचा दो।”
बंधु जी ने पत्नी को बुलाया और आग्रह किया कि यह बात ब्राह्मण उनके सामने भी कहें। जब ब्राह्मण ने पुनः कहा, पत्नी और बच्चे भावविभोर हो गए। उन्होंने तत्काल भोजन कर लिया। परंतु बंधु जी का हृदय तो प्रभु के "मित्र" कहे जाने से ही तृप्त हो गया।
ब्राह्मण (स्वयं भगवान) ने कहा, “यह थाली बहुत मूल्यवान है, कृपया इसे प्रातः मंदिर में वापस पहुँचा देना।” बंधु जी ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया।
जगन्नाथ मंदिर में हड़कंप
प्रातः मंदिर में हड़कंप मच गया — स्वर्ण थाली लापता थी! पुजारीगण खोजबीन करने लगे। जब उन्होंने थाली बंधु महंत जी के पास देखी, तो बिना कुछ पूछे उन्हें मारने लगे। किंतु बंधु जी तो प्रभु में लीन थे, मुस्कराते हुए बोले:
"हे प्रभु! कल प्रसाद खिलाया, आज मार खिला रहे हो, आपकी लीला भी अद्भुत है।"
वास्तव में वे बेहोश नहीं हुए थे, ध्यानावस्था में चले गए थे।
रात्रि में भगवान स्वयं राजा के स्वप्न में आए और कहा,
"राजन, मेरा मित्र बंधु महंत पीटा जा रहा है। किसी ने यह नहीं सोचा कि जब मंदिर बंद था, थाली बाहर कैसे आई? स्वयं मैं, ब्राह्मण वेश में, महाप्रसाद देकर गया था। आप जाकर उसे बचाइए और उसे मंदिर के लेखा-जोखा की सेवा सौंपिए।"
राजा ने वैसा ही किया। जब उन्होंने यह बात पुजारियों को बताई, सभी उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। राजा ने घोषणा की —
"बंधु महंत जी को आज से जगन्नाथपुरी मंदिर के लेखा विभाग की सेवा प्रदान की जाती है, यह सेवा स्वयं प्रभु द्वारा उन्हें दी गई है।"
बंधु महंत जी की सीख
भक्तों, भगवान भाव के भूखे होते हैं। जो भी भक्त सच्चे हृदय से उन्हें अपना मानता है, भगवान उसे कभी नहीं छोड़ते। बंधु महंत जी ने कभी पुरी नहीं देखा था, किंतु उनकी श्रद्धा ने उन्हें प्रभु का परम मित्र बना दिया।
जय जगन्नाथ
जय सियाराम
जय बलभद्र सुभद्रा
जगन्नाथ महाप्रभु की जय
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